Saturday, August 15, 2020

What really matters to life:

कुछ लोग,  हमेशा अधिक पाने या जो कुछ उनके पास है उसी पर टिके रहने के बारे में सोचते रहते हैं। मेरा एक दोस्त है जो कहता है, "सब कुछ पैसे के बारे में है"। मुझे लगता है कि यह सामानों  को इकट्ठा करने जैसा है.आपको लगता है कि आपके पास पर्याप्त है, तो उसे देखें जो आपने पहले कभी नहीं देखा है और आपके पास होना ही चाहिए। मैं अब ब्लू रिज पहाड़ों में एक शांत जीवन जीता हूं जहां पैसा और भौतिक सामान बहुत कम मायने रखते हैं। मेरे पास एक अच्छी सी कुटिया है, लेकिन मेरे लिए जो सबसे ज्यादा मायने रखता है वह है अपने बरामदे पर बैठना, अपने नीचे की खाड़ी को सुनना, हवा को महसूस करना, पक्षियों और अपनी मुर्गियों को सुनना, और अपने बड़े होने और उसमें बहुत कुछ लगाने पर गर्व महसूस करना। अपना भोजन। मैं जहां रहता हूं उस पहाड़ के किनारे बागवानी करना भी मुझे पसंद है। गुलाब, बकाइन, हाइड्रेंजस... मुझे ये सब बहुत पसंद हैं। भौतिक वस्तुओं को जमा करने के बजाय, मैं अपने फूलों के पौधों को बेहतर, स्वस्थ और सुंदर बनाने के लिए उन पर काम करता हूं।

मुझे यह महसूस होने लगा है कि मेरे पास बहुत कुछ है और मुझे किसी और चीज की जरूरत नहीं है। यह एक बेहद संतुष्टिदायक एहसास है और इससे मुझे पहले की तुलना में कहीं अधिक खुशी मिलती है। जो मित्र अभी भी "सफलता की खोज" में लगे हुए हैं, वे मिलने आते हैं और ईर्ष्यालु होते हैं। "मैं तुम्हारा जीवन चाहता हूँ" एक टिप्पणी है जो मैं अक्सर सुनता हूँ - यहाँ तक कि अपने बेटे के लगभग तीस दोस्तों से भी। और, फिर भी, जहां तक ​​मौद्रिक मूल्य की बात है, मेरी उम्र के अधिकांश लोगों के पास मुझसे कहीं अधिक है। वे आसानी से वह सब त्याग सकते हैं और एक समान जीवन शैली अपना सकते हैं, लेकिन वे वह "बलिदान" नहीं कर सकते। यह उन्हें डराता है. उन्हें खरीदारी, रेस्तरां और गोल्फ कोर्स के बिना जीवन जीने की चिंता है, और फिर भी वे मेरी जीवनशैली से ईर्ष्या करते हुए उस जीवनशैली को बनाए रखने के लिए खुद को मार रहे हैं।
मुझे लगता है कि कुछ कम पाने के लिए "छोड़ने" का विचार एक डरावना विचार है जिसके बारे में हमें नकारात्मक सोचने के लिए प्रेरित किया गया है। त्याग या त्याग = हानि। और अधिक बेहतर है। कम चाह रहा है. लेकिन, मैंने सीखा है कि अधिक की चाहत थका देने वाली होती है और जो हमारे पास है उसे स्पष्ट रूप से देखने और उसकी सराहना करने से हमें रोकती है; कम में संतुष्ट होना शांतिपूर्ण है और गहरी संतुष्टि की भावना लाता है। (मैं खुश शब्द का उपयोग करने से बचता हूं क्योंकि खुशी क्षणभंगुर है, दुख की तरह। स्थायित्व के लिए, आप संतुष्ट और संतुष्ट महसूस करना चाहते हैं।)
अब मुझे रात में बहुत अच्छी नींद आती है क्योंकि अब मुझे लगातार छड़ी पर गाजर का पीछा करने की चिंता नहीं रहती। इसके बजाय, मैं अगले सीज़न के बगीचे की योजना बना सकता हूं, सोच रहा हूं कि क्या मैं उस थ्रो को बुनूंगा जो मैंने योजना बनाई है या छोटे फुटस्टूल पर सुई लगाऊंगा, या सोचूंगा कि मुझे लाइब्रेरी में कौन सी किताबें देखनी चाहिए। निर्णय निर्णय।

Friday, January 31, 2020

happiness

Happiness means life .

In your experience, does a calm and modest life actually bring more happiness than the pursuit of success combined with constant restlessness?

10 Answers
Alys Richards
Alys Richards, former School Psychologist (R), Atheist, at Stewardess , ISTP, Boomer, Org Gardener, Chicken Keeper (1999-2...

Friday, February 24, 2012

सुस्वराज

आज के समय की ठीक तुलना अंगेजों के समय से की जानी चाहिए . फर्ज कीजिये १९४७ के पहले कोई भी भारतीय बर्तानिया शासन के खिलाफ प्रोटेस्ट करता तो उसका क्या हाल होता , यही जो दिल्ली पुलिस ने राम लीला मैदान पे ४ जून को किया था और मुकदमा जैसे ब्रिटिश न्यायधीशों (परन्तु याद रहे तब भी और अब भी न्याय नहीं फैसले होते हैं ) के पास जाता था वैसे ही हमारी कोर्ट में गया और फैसला कमोबेस वैसे ही आया ...protestors पे भी इल्जाम लगा दिया . ये तो ऐसा लग रहा है की सरकार को भी खुश कर दो और जनता को भी ...पूरी तरह से क़ानूनी दाव पेंच से भरा हुआ फैसला , यानी अपने अपने हिसाब से interpret कर के खुश भी हो जाओ और थोडा नाराज भी हो लो .....मुद्दे से ध्यान फिर हटा दिया गया . कला धन ऐसा मुद्दा है की जिसमे बहुतेरे लोगों के पैसे लगे हुए हैं , ये सीधा दिल पे तीर मरने वाला मुद्दा है (देखा जाय तो आय से अधिक संपत्ति काला धन की श्रेणी में आती है ) , जितने भी नेता , सरकारी अफसर हैं उनके तनख्वाह के हिसाब से उनका रहन सहन होता है क्या ?? (सरकारी नौकरी का ज्यादा charm इसीलिए भी होता है की पक्की नौकरी और दुनिया भर के allowences , काम करो ना करो कौन भला निकाल सकता है ) जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है तो ये तो लम्बी लडाई है , CBI, IB, CVC, THE ANTI-CORRUPTION ACT, 1967.The Prevention of Corruption Act,The Prevention of Money Laundering Act ,.....फिर लोकायुक्त और अब या जाने कब एक और कानून (लोकपाल) आदि आदि .....आम आदमी को कभी कभी बेबसी सी लगती है की करे तो क्या करे , कितने कितने खून करने वाले , कानून को रोज तोड़ने वाले जेल में बैठे बैठे ही चुनाव लड़ जाते है (कानून में है की भारत का नागरिक होना चाहिए, पढ़ा लिखा या अनपढ़)( और फैसला तो हुआ नहीं है अभी केस चल रहा है ) और जब चुनाव जीत जायेंगे तो वही संसद में बैठ कर कानून बनायेंगे . कोर्ट के फैसले जो अक्सर लचर ही साबित होते हैं , को देख कर इन्सान बेबस सा हो जाता है . अंग्रेजों के समय आजादी के लिए गाँधी जी के आन्दोलन , लाल बाल पाल का स्वदेशी अभियान और क्रांतिकारियों का अथक प्रयास , अंग्रेजों को भागने में सहायक हुआ . अभी फिर स्थिति वैसी ही बनती जा रही है , २-४ -१० साल में फिर से चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह , पंडित रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाक उल्लाह खान, राजेंदर लहरी, सुखदेव, राजगुरु , नेता जी आदि आदि जैसे लाखो लोग सरेआम जंग में उतर जायेंगे और आज का युवा कहीं अंग्रेजों की तरह इन भ्रष्ट नेताओं को मरना काटना शुरू न करदे ...क्यों की मौत से तो मौत भी डरती है और कमजोर इन्सान तो और भी .....स्वराज्य......
यहाँ गोपालप्रसाद व्यास की लाइने प्रासंगिक सी लगती हैं :::::::
वह खून कहो किस मतलब का,जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का,आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का,जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही,खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में,मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिर,बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में,लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो,जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं,पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता की आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून” शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को,सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को हिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए जो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

Sunday, January 29, 2012

गण का तंत्र ???????

राष्ट्रकिंकर (साप्ताहिक दैनिक ) में एक लेख पढ़ा की यह गणतंत्र की सफलता है या कुछ और फैसला करना मुश्किल हो रहा है आखिर राजनीति का आकर्षण दिनों-दिन क्यों बढ़ता जा रहा है। नेताओं का साम्राज्य दिन दुगनी-रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। चुनाव महंगा कर्मकांड बनते जा रहे हैं जबकि चुनाव आयोग लगातार सख्ती का ढिंढ़ोरा पीट रहा है। क्या मूर्तियां स्थापित होते देखते रहना और ऐन चुनाव के वक्त उन्हे ढकने का आदेश गण की खून-पसीने की कमाई का दुरुपयोग नहीं है? और हां, चुनाव के बाद मूर्तियों से कपड़ा हटाने का खर्च भी होगा, उसकी चिंता भी तो जनता को ही करनी है. तम्बाखू - शराब के license धड़ा धड़ दिए जाते हैं और जब लोग पी पी कर बीमार पड़ते हैं या मरते हैं तो उनके पैसे से ही cancer research institute , counselors , नशा रोको अभियान चलाया जाता है , नशा मुक्ति केंद्र खोले जाते हैं ....जिनको खाने के लिए अन्न नहीं है उन्हें सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए जाते हैं ...वाह रे गणतंत्र.... १९४७ में जनसँख्या तक़रीबन ३५ करोड़ थी तो गरीबों की संख्या ४ करोड़ (सरकारी आंकड़े) ) अब सवा करोड़ (१२१ करोड़ ) जनसँख्या तो गरीबों की संख्या ८४ करोड़ (सरकारी आंकड़े) , ये किसी भी तरीके से संतुलित नहीं लगता, यहाँ दीगर है की सरकार ने पैसे खर्च करने में कोई कोताही नहीं बरती (मात्र कागजों पे) आखिर ११ पञ्च वर्षीय योजनायें बना डाली अरबों - खरबों रूपये खर्च हो गए लेकिन human development index में 119 वाँ नंबर आता हैं , प्रधानमंत्री जी कहते हैं कुपोषण रास्ट्रीय शर्म की बात है लेकिन क्या क्या गिनाएंगे ....खैर गण का तंत्र बने इसी आशा में .................

Wednesday, January 25, 2012

क्रांति की शुरुआत

जब भ्रस्टाचार अपने चरम पे होता है तो वहां फिर बदलाव की चिंगारी भड़कना शुरू हो जाती है जैसे फ़्रांस में, रूस में, जापान आदि में ......व्यवस्था परिवर्तन के लिए तख्ता पलट हुआ यानि सत्ता परिवर्तन ....कमोवेश भारत में भी ऐसी ही स्थितियां बन रही हैं , बस वक़्त का तकाजा है, परन्तु क्रांति का आगाज हो चुका है .....